योग एक बहुत ही प्राचीन और जीवन उपयोगी पद्धत्ति है या कहसकते है कि जीवन जीने का विज्ञानं है जो समस्त जीवजगत को जीने की कला सिखाता है सही रूप से देखा जाये तो योग जीवन की डोर के उलझे हुए गुच्छे का एक सिरा है जो जीवन को सिर्फ सही से जीना ही नहीं सिखाता अपितु जीवन को जन्म से समाधि तक के सफर तक पहुंचाता है। योग मानसिक शांति , मानसिक संतुलन, शारीरिक रोगमुक्ति देता ही है और साथ में पंचतत्वों से बने मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है।
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योग करने या सीखने से पहले योग को जान लेना बहुत ही जरुरी बनता है कि योग क्या है इस अदुभुत राहिष्यामयी ज्ञान की खोज किसने की। शाक्यमुनि तथागत भगवान बुद्ध को योग का जनक माना जाता है। योग शब्द पहले पाली भाषा का ‘जोग ‘ शब्द था। जोग शब्द अभी भी कुछ समय तक प्रचलन में देखा गया है जोग करने वाले साधक को जोगी कहते थे बाद में पतंजलि ने जोग शब्द को बदल कर योग कर दिया और साधना करने वाले साधक को योगी कहने लगे।
योग संस्कृत धातु ‘युज ’ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है जोड़ना , एक साथ शामिल होना “व्यक्तिगत चेतना ” या “आत्मा की सार्वभौमिक चेतना ” या “रूह से मिलन ” अर्थात आत्मा को परमात्मा से जोड़ना .
साधारण भाषा में मनुष्य के शरीर (Body) और मन (Mind) को आत्मा (Soul) के साथ जोड़ने के लिए जो कार्य किया जाता है उसे योग कहते है मूलतः इसका मतलब व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन ही योग है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार –
|| योगश्चित्त वृत्ति निरोधः ||
चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है अर्थात चित्त की वृत्तियों को रोकना ही योग है।
उपरोक्त परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है।
उनका कहना है कि चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप , चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि :शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा , प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा। निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ?
||योगस्थ : कुरु कर्माणि ||
योग में स्थित होकर कर्म करो।
विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते , स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं , जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप , उसके दार्शनिक आधार को सम्यक रूप से समझना बहुत सरल नहीं है।
इन विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता है कि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग की भित्ति खड़ी की जा सके , यह बड़ा रोचक प्रश्न है।
अगर सही मायने में देखा जाये तो योग का मूल उद्देश्य
|| कुशल चितैकग्गता योगः ||
अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है जो तथागत भगवान बुद्ध ने बताया है।
महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग भी भगवान बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का ही हिस्सा है। क्योंकि पतंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग बाद की रचना है। अष्टांग योग बहुत ही महत्वपूर्ण साधना पद्धति है , जिसका वर्णन पतंजलि ने अपने सूत्रों में किया है |
लगभग 200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग को लिखित रूप में संग्रहित किया और योग –सूत्र की रचना की। योग –सूत्र की रचना के कारण पतंजलि को योग का पिता कहा जाता है। उन्होंने योग के आठ अंग यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान और समाधि का वर्णन किया है | यही अष्टांग योग है |आइये जानते है-
यम Yama (पांच “परिहार “): अहिंसा , झूठ नहीं बोलना , गैर लोभ , गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत .
नियम Niyama (पांच “धार्मिक क्रिया “): पवित्रता , संतुष्टि , तपस्या , अध्ययन और भगवान को आत्मसमर्पण .
आसन Asana : मूलार्थक अर्थ “बैठने का आसन ” और पतंजलि सूत्र में ध्यान
प्राणायाम Pranayama (“सांस को स्थगित रखना “): प्राण , सांस , “अयाम “, को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है।
प्रत्यहार Pratyahara (“अमूर्त “):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार .
धारणा Dharana (“एकाग्रता “): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना .
ध्यान Dhyana (“ध्यान “):ध्यान की वस्तु की प्रकृति गहन चिंतन .
समाधि Samadhi (“विमुक्ति “):ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है – सविकल्प और अविकल्प। अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।
पतंजलि ने ईश्वर तक , सत्य तक , स्वयं तक , मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा , सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश : बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुँच ही जाएँगे।
“ यदि आप आत्मज्ञान चाहते हैं , तो मूल कारण पर जाएँ। बिना कारण के कुछ भी मौजूद नहीं है। आत्मज्ञान का मूल कारण करुणा है। ” – H.H. दलाई लामा
योग दर्शन या धर्म नहीं , गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो , सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही , यह विश्वास का मामला नहीं है।
‘योग धर्म , आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक प्राचीन भारतीय जीवन –पद्धति है। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। जिसमें शरीर , मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग ) का काम होता है। योग के माध्यम से शरीर , मन और मस्तिष्क को पूर्ण रूप से स्वस्थ किया जा सकता है। तीनों के स्वस्थ रहने से आप स् वयं को स्वस्थ महसूस करते हैं।
योग के जरिए न सिर्फ बीमारियों का निदान किया जाता है , बल्कि इसे अपनाकर कई शारीरिक और मानसिक तकलीफों को भी दूर किया जा सकता है। योग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाकर जीवन में नव –ऊर्जा का संचार करता है। योगा शरीर को शक्तिशाली एवं लचीला बनाए रखता है साथ ही तनाव से भी छुटकारा दिलाता है जो रोजमर्रा की जि़न्दगी के लिए आवश्यक है। योग आसन और मुद्राएं तन और मन दोनों को क्रियाशील बनाए रखती हैं
दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।