योग क्या है? What is Yoga? Buddhism and Patanjali Yoga Sutras?

yoga

योग एक बहुत ही प्राचीन और जीवन उपयोगी पद्धत्ति है या कहसकते है कि जीवन जीने का  विज्ञानं है जो समस्त जीवजगत को जीने की कला सिखाता  है सही रूप से देखा जाये तो योग जीवन की डोर के उलझे हुए गुच्छे का एक सिरा है जो जीवन को सिर्फ सही से जीना ही नहीं सिखाता अपितु जीवन को जन्म से समाधि तक के सफर तक पहुंचाता है। योग मानसिक शांति , मानसिक संतुलन, शारीरिक रोगमुक्ति देता ही है और साथ में  पंचतत्वों से बने मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है। 


योग करने या सीखने से पहले योग को जान लेना बहुत ही जरुरी बनता है कि योग क्या है इस अदुभुत राहिष्यामयी ज्ञान की खोज किसने की। शाक्यमुनि तथागत भगवान बुद्ध को योग का जनक माना जाता है। योग शब्द पहले पाली भाषा का ‘जोग‘ शब्द था। जोग शब्द अभी भी कुछ समय तक प्रचलन में देखा गया है जोग करने वाले साधक को जोगी कहते थे बाद में पतंजलि ने जोग शब्द को बदल कर योग कर दिया और साधना करने वाले साधक को योगी कहने लगे।
योगसंस्कृत धातुयुजसे उत्पन्न हुआहै जिसका  अर्थहोता है जोड़ना, एकसाथ शामिल होनाव्यक्तिगत चेतनायाआत्मा की सार्वभौमिक चेतनायारूह से मिलनअर्थातआत्मा को परमात्मा सेजोड़ना.
 साधारण भाषा में मनुष्य के शरीर (Body) औरमन (Mind) को आत्मा (Soul) केसाथ जोड़ने के लिए जोकार्य किया जाता है उसे योगकहते है मूलतःइसका मतलब व्यक्तिगत चेतना या आत्मा कासार्वभौमिक चेतना या रूह सेमिलन ही योग है।

महर्षि पतंजलिकेअनुसार

 || योगश्चित्त वृत्तिनिरोधः ||

चित्तकी वृत्तियों का निरोध हीयोग है अर्थात चित्तकी वृत्तियों को रोकना हीयोग है।

उपरोक्तपरिभाषा पर कई विद्वानोंको आपत्ति है।

उनकाकहना है कि चित्तवृत्तियोंके प्रवाह का ही नामचित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगाचित्त के अस्तित्व कापूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों कानि:शेष हो जाना। यदिऐसा हो जाए तोफिर समाधि से उठना संभवनहीं होगा। क्योंकि उस अवस्था केसहारे के लिये कोईभी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध दग्ध हो गया होगा।निरोध यदि संभव हो तो श्रीकृष्णके इस वाक्य काक्या अर्थ होगा?
 ||योगस्थ: कुरु कर्माणि || 

योग में स्थित होकर कर्म करो।

विरुद्धावस्थामें कर्म हो नहीं सकताऔर उस अवस्था मेंकोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जोसमाधि से उठने केबाद कर्म करने में सहायक हों।

संक्षेपमें आशय यह है कियोग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार को सम्यक रूपसे समझना बहुत सरल नहीं है।
इनविभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में किस प्रकार ऐसा समन्वय हो सकता हैकि ऐसा धरातल मिल सके जिस पर योग कीभित्ति खड़ी की जा सके, यह बड़ा रोचक प्रश्न है।
अगरसही मायने में देखा जाये तो योग कामूल उद्देश्य 

||  कुशल चितैकग्गतायोगः ||
अर्थात्कुशल चित्त की एकाग्रता योगहै जो तथागत भगवानबुद्ध ने बताया है।

महर्षिपतंजलि के अष्टांग योगभी भगवान बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग  काही हिस्सा है। क्योंकि पतंजलि योग सूत्र के अष्टांग योग  बुद्धके आष्टांगिक मार्ग  बादकी रचना है। अष्टांग योग बहुत ही महत्वपूर्ण साधनापद्धति है, जिसका वर्णन पतंजलि ने अपने सूत्रोंमें किया है|
लगभग200 ईपू में महर्षि पतंजलि ने योग कोलिखित रूप में संग्रहित किया और योगसूत्रकी रचना की। योगसूत्र की रचना केकारण पतंजलि को योग कापिता कहा जाता है। उन्होंने योग के आठ अंगयम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि कावर्णन किया है| यही अष्टांग योग है|आइये जानतेहै-
  1. यम  Yama  (पांचपरिहार“): अहिंसा, झूठ नहीं बोलना, गैर लोभ, गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत.
  2. नियम Niyama (पांचधार्मिक क्रिया“): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन और भगवान कोआत्मसमर्पण.
  3. आसन Asana मूलार्थक अर्थबैठने का आसनऔरपतंजलि सूत्र में ध्यान
  4. प्राणायाम Pranayama  (“सांस को स्थगित रखना“): प्राण, सांस, “अयाम “, को नियंत्रित करनाया बंद करना। साथ ही जीवन शक्तिको नियंत्रण करने की व्याख्या कीगयी है।
  5.  प्रत्यहार Pratyahara (“अमूर्त“):बाहरी वस्तुओं से भावना अंगोंके प्रत्याहार.
  6. धारणा Dharana (“एकाग्रता“): एक ही लक्ष्यपर ध्यान लगाना.
  7. ध्यान Dhyana  (“ध्यान“):ध्यान की वस्तु कीप्रकृति गहन चिंतन.
  8. समाधि Samadhi (“विमुक्ति“):ध्यान के वस्तु कोचैतन्य के साथ विलयकरना। इसके दो प्रकार हैसविकल्प और अविकल्प। अविकल्पसमाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्गया व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धतिकी चरम अवस्था है।


पतंजलिने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहोकि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने कीआठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आपसिर्फ एक सीढ़ी चढ़ोतो दूसरी के लिए जोरनहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोरहै। पहल करो। जान लो कि योगउस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिकप्रक्रिया है। आप यदि चलपड़े हैं तो पहुँच हीजाएँगे।

यदिआपआत्मज्ञानचाहतेहैं, तोमूलकारणपरजाएँ।बिनाकारणकेकुछभीमौजूदनहींहै।आत्मज्ञानकामूलकारणकरुणाहै।” –H.H. दलाई लामा

योगदर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादाहै। दो में दोमिलाओ चार ही आएँगे। चाहेविश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथडालने से हाथ जलेंगेही, यह विश्वास कामामला नहीं है।

 ‘योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास सेपरे है। योग एक सीधा विज्ञानहै। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीनेकी कला। योग एक प्राचीन भारतीयजीवनपद्धति है। योग एक पूर्ण चिकित्सापद्धति है। जिसमें शरीर, मन और आत्माको एक साथ लाने(योग) का काम होताहै। योग के माध्यम सेशरीर, मन और मस्तिष्कको पूर्ण रूप से स्वस्थ कियाजा सकता है। तीनों के स्वस्थ रहनेसे आप स्वयंको स्वस्थ महसूस करते हैं। 

योग के जरिए सिर्फ बीमारियों का निदान कियाजाता है, बल्कि इसे अपनाकर कई शारीरिक औरमानसिक तकलीफों को भी दूरकिया जा सकता है।योग प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाकरजीवन में नवऊर्जा कासंचार करता है। योगा शरीर को शक्तिशाली एवंलचीला बनाए रखता है साथ हीतनाव से भी छुटकारादिलाता है जो रोजमर्राकी जि़न्दगी के लिए आवश्यकहै। योग आसन और मुद्राएं तनऔर मन दोनों कोक्रियाशील बनाए रखती हैं
 दरअसल  धर्मलोगों को खूँटे सेबाँधता है और योगसभी तरह के खूँटों सेमुक्ति का मार्ग बताताहै।

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